"पढ़ लिख कर बना मैं अनपढ़"
अज्ञात को मानना और ना मानना दोनो तौर पर व्यर्थ है, क्योंकि दोनों तौर पर एक सीमा उपस्थित कर देते हैं।
क्योंकि दोनों का होना एक कारण से जन्मेगा जहां कारण होगा वहां परिभाषा अवश्य होगी। जहां परिभाषा होगी वहां आधार होगा स्मृति का ,जहां स्मृति होगी वह भूत काल मे होगी और जहाँ संभावना होगी वह भविष्य में होगा।
पर होगा मस्तिष्क में उपस्थित और गहरे बैठे छापों का, बस रूप नया होगा।
बार बार का वाद विवाद केवल मैं के लिए होगा। यह नया पैदा होना नहीं, बस रूप बदल देना है। क्योंकि शब्द भी सीमाएं बांध देती हैं यह केवल माध्यम भर है पार कराने का सेतु नहीं, क्योंकि शब्द में भी प्रश्न हैं यह चलता रहगा।
आप संतुष्ट भर हो सकते हो। पर स्थिरता में स्तिथ नहीं हो सकते। क्योंकि गहरा पानी ही स्थिर होता है छिछला नहीं। क्योंकि वह गहरा है वहां डूबना है। छिछले में बुलबुले उठेंगे। इसलिए वहां मौन है अगर परिभाषा भी है तो अनेकों है। पर वो केवल माध्यम भर , पर एक का होना और अर्थ बहुत होना भी सही है, क्योंकि अर्थ बहुत होने से एक को देखना थोड़ा जागृति पैदा कर देगा। पर जब हो जानने की इच्छा, पर यह एक वैज्ञानिक खोज नही क्योंकि यह सीमित नहीं। यह इच्छा भाव की है पाने की है अंदर मुड़ने की है।
इस मनिफेस्टेड जगत में सारे सत्य सशर्त है। व्यक्त जगत में। परन्तु अव्यक्त जगत में सारे सत्य सामान्य हैं।अधिकतर लोगों को लगता है,उनकी ज़िंदगी खाली खाली सी है। जिससे वो अवसाद और दवाब महसूस करते हैं। किंतु जिसे वो खालीपन समझ रहे हैं वो वास्तविक रूप में विचारों की एक काम्प्लेक्स श्रृंखला है जिसमे में वो घिरे रहते हैं। पर वास्तविक रूप से अगर खालीपन का वो अनुभव कर लेते हैं तो उनकी सारी जिंदगी आनंद से भर जाती है।दुसरो को हानि पहुचाने की बात तब तक ही होती है जब तक लाभ हानि में अंतर होता है।नीति कमजोरो के लिए है शक्तिशाली का नीति से कोई संबंध नही.